डॉ. बाबासाहब आंबेडकर का राजनीतिक सफर – Dr Ambedkar’s Political Journey

डॉ. बाबासाहब आंबेडकर को भारत के सर्वश्रेष्ठ राजनेताओं में शामिल किया जाता है। इस लेख में हम डॉ आंबेडकर का राजनीतिक सफर जानने वाले हैं। बाबासाहब ने कई राजनीतिक दल गठित किए थे। वह विधायक, सांसद, मन्त्री और संविधान सभा के सदस्य भी थे।

 Read this article in English 

Political career of Dr Ambedkar
डॉ. आंबेडकर का राजनीतिक सफर – Political career of Dr Ambedkar

वर्तमान समय में भारतीय राजनीति में सबसे लोकप्रिय एवं प्रभावशाली शख्सियत डॉ. बाबासाहब आंबेडकर की है। सत्ताधारी नेता तथा विपक्ष के नेता भी उन्हें अपना ‘आदर्श’ बताते है। भारतीय राजनीति में क़रीब 36 साल तक सक्रिय रहे डॉ भीमराव आंबेडकर सामाजिक न्याय के बड़े योद्धा थे। उन्हें जीवन भर राजनीति की धूप छांव झेलनी पड़ी।

डॉ बाबासाहब आंबेडकर के राजनीतिक सफ़र में उनकी सबसे बड़ी ताक़त थी उनका शुद्ध चरित्र एवं प्रकांड विद्वत्ता। उन्होंने भारत के सभी वंचितों, शोषितों, महिलाओं के लिए काम किया लेकिन उन्हें केवल दलितों के नेता के रूप में जाना गया। बाबासाहब ने महाराष्ट्र के एक गरीब दलित परिवार से निकल कर अपना राजनीतिक करियर शुरू किया था।

आज की पीढ़ी को डॉ. आंबेडकर के राजनीतिक योगदान और उनके राजनीतिक क़द का अंदाज़ा भले नहीं हो, लेकिन अब तक के गैर कांग्रेसी नेताओं में वे सबसे पावरफ़ुल नेता माने जाते है। अपनी विद्वत्ता एवं योग्यता के बल पर वे प्रधानमंत्री बनने की हैसियत रखते हैं, हालांकि प्रधानमंत्री या अर्थमंत्री जैसे पावरफ़ुल मंत्रालयों की कमान उनके ज़िम्मे नहीं आई।

 

डॉ आंबेडकर का राजनितिक जीवन 

डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर राजनीतिक वैज्ञानिक थे, जिन्हें भारतीय इतिहास के महानतम राजनेताओं में से एक के रूप में भी जाना जाता है। उन्होंने 1919-20 से सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में काम करना शुरू किया और 1956 तक, उन्होंने कई राजनीतिक पदों पर काम किया। इसलिए डॉ आंबेडकर का राजनीतिक सफर जानना महत्वपूर्ण भी है और दिलचस्प भी।

एक सभा को संबोधित करते हुए डॉ. बाबासाहब आंंबेडकर

डॉ आंबेडकर का राजनीतिक सफर

साउथबरो मताधिकार समिति के समक्ष गवाही

1919 तक भारत में अस्पृश्यों को ब्रिटिश सरकार से राजनीतिक और सामाजिक अधिकार नहीं मिले थे। लेकिन जब साउथबरो की अध्यक्षता वाली मताधिकार कमेटी बंबई प्रांत में आई, तब सिडेनहैम कॉलेज के प्रोफेसर डॉ आंबेडकर ने अछूतों के प्रतिनिधि के रूप में भारत सरकार अधिनियम 1919 पर साउथबरो मताधिकार कमेटी के सामने गवाही दी और पचास पन्नों का मुद्रित बयान प्रस्तुत किया।

उनकी मांगें थी कि अछूतों को वोट देने का अधिकार होना चाहिए, उन्हें चुनाव में खड़े होने में सक्षम होना चाहिए, उनके मतदाताओं के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र होना चाहिए, अछूत प्रतिनिधियों को अछूत मतदाताओं द्वारा चुना जाना चाहिए और अछूतों को अछूतों में सीटें दी जानी चाहिए। 

उनके नेतृत्व में अछूत सामाजिक कार्यकर्ताओं और नेताओं ने बैठकें कीं और अपनी मांगों को लेकर प्रस्ताव पारित कर उसे ब्रिटिश सरकार को भेज दिया। डॉ आंबेडकर ने महसूस किया कि नेता को एक समाचार पत्र शुरू करना चाहिए जो  सामाजिक न्याय के इस आंदोलन को जारी रखने में मदद करेगा।

 

बंबई विधान परिषद के सदस्य (1926 – 1937)

डॉ. आंबेडकर का राजनीतिक सफर – विधायक : दिसंबर 1926 में बंबई के गवर्नर हेनरी स्टैवले लॉरेंस ने डॉ आंबेडकर को बंबई विधान परिषद (बॉम्बे लेजिस्लेटिव्ह काउन्सिल) के सदस्य के रूप में नियुक्त किया। यहां से बाबासाहब के राजनीतिक सफर की शुरुआत हुई। बंबई विधान परिषद में उन्होंने अक्सर सामाजिक एवं आर्थिक विषयों पर भाषण दिए। वे 1936 तक बंबई विधान परिषद के सदस्य रहे। लेकिन इस बीच अछूतों के पास कोई राजनीतिक अधिकार नहीं थे।

इसी बीच बाबासाहेब को 1930 में लंदन में आयोजित पहले गोलमेज सम्मेलन में अछूतों के प्रतिनिधि के रूप में आमंत्रित किया गया था। इस सम्मेलन में, उन्होंने भारत में अछूतों की स्थिति के बारे में आवाज उठाई और अस्पृश्यता के उन्मूलन की मांग की। उन्होंने पहले और दूसरे गोलमेज सम्मेलनों में दलितों के मौलिक अधिकारों का एक घोषणापत्र तैयार किया और अल्पसंख्यकों के लिए नियुक्त समिति को प्रस्तुत किया।

बाबासाहेब ने अपने घोषणापत्र में अछूतों के लिए एक अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग की गई थी। इस मांग को ब्रिटिश सरकार ने स्वीकार कर लिया। लेकिन महात्मा गांधी ने स्वतंत्र निर्वाचन क्षेत्र की अवधारणा का कड़ा विरोध किया और इसके खिलाफ पुणे की यरवदा जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। इसकी परिणति पुणे समझौते में हुई।

14 अगस्त, 1931 को डॉ. आंबेडकर और महात्मा गाँधी की पहली मुलाकात बंबई के मणि भवन में हुई थी। उस वक्त तक गाँधी को यह मालूम नहीं था कि आंबेडकर स्वयं एक कथित ‘अस्पृश्य’ हैं। वह उन्हें अपनी ही तरह का एक समाज-सुधारक ‘सवर्ण’ या ब्राह्मण नेता समझते थे। गाँधी जी को यही बताया गया था कि डॉ. आंबेडकर ने विदेश में पढ़ाई कर ऊंची डिग्रियां हासिल की हैं और वे पीएचडी हैं। दलितों की स्थिति में सुधार को लेकर उतावले हैं और हमेशा गाँधी व कांग्रेस की आलोचना करते रहते हैं। प्रथम गोलमेज सम्मेलन में डॉ. आंबेडकर की दलीलों के बारे में जानकर गाँधी विश्वास हो चला था कि यह पश्चिमी शिक्षा और चिंतन में पूरी तरह ढल चुका कोई आधुनिकतावादी युवक है, जो भारतीय समाज को भी यूरोपीय नजरिए से देख रहा है।

 

इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी, और बॉम्बे विधान सभा के सदस्य एवं विपक्ष के नेता (1937 – 1942)

डॉ. आंबेडकर का राजनीतिक सफर – विधायक व विपक्ष नेता : ‘किसी भी समाज में, उस देश के आम लोगों का जीवन पथ राजनीतिक स्थिति से आकार लेता है। राजनीतिक शक्ति लोगों की आकांक्षाओं का प्रतीक है। जिनके हाथ में यह होता है उन्हें लोगों की आशाओं और सपनों को साकार करने का अवसर मिलता है’, ऐसा डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने इसे महसूस किया।

डॉ आंबेडकर का मानना ​​था कि “चूंकि इस देश में कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व पूंजीपतियों, जमींदारों और ब्राह्मणों के हाथों में है, इसलिए राजनीतिक सत्ता उनके हाथों में होगी और दलित मेहनतकश समाज को गुलामों की तरह माना जाएगा।” ऐसा होने से रोकने के लिए उन्होंने लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित एक ‘इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी’ बनाने का फैसला किया। अस्पृश्य वर्गों की स्वतंत्र राजनीतिक पहचान स्थापित करने के लिए बाबासाहेब ने 1936 में उन्होंने ‘इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी’ की स्थापना की।

17 फरवरी 1937 को इस पार्टी के 17 उम्मीदवारों में से 15 मुंबई क्षेत्र के प्रांतीय विधानसभा चुनावों में चुने गए थे। जीतने वाले 15 उम्मीदवारों में से 13 इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी से थे और 2 इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी द्वारा समर्थित थे। यह पार्टी के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि थी।

इस समय, डॉ आंबेडकर को बॉम्बे विधान सभा के सदस्य (विधायक) के रूप में भी चुना गया था। यह उनके राजनीतिक सफर का दूसरा चरण था। काँग्रेस के बाद सबसे अधिक सीटें इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी को मिली थी इसलिए बाबा साहब मुंबई विधानसभा में विपक्ष के नेता बनें।

1937 के बॉम्बे विधानसभा चुनाव में, कांग्रेस ने बाबासाहेब के खिलाफ पहले दलित क्रिकेटर बालू पालवणकर को मैदान में उतारा। वल्लभभाई पटेल की जिद थी कि बालू को चुनाव लड़ना चाहिए। इस कड़े चुनाव में डॉ आंबेडकर को 13,245 वोट मिले और बालू को 11,225 वोट मिले। इस चुनाव में पी.एन. राजभोज भी खड़े थे। इससे पहले पुणे समझौते (पूना पैक्ट) को लाने में, दक्षिणी सामाजिक नेता एम.सी. राजा और बालू पालवणकर ने महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाईं थी।

डॉ आंबेडकर 1937 से 1942 तक बॉम्बे विधान सभा के सदस्य रहे और इस दौरान उन्होंने बंबई विधान सभा में विपक्ष के नेता के रूप में भी कार्य किया।

 

नेहरू और बोस के साथ पहली मुलाकातें

अक्टूबर 1939 में डॉ. बाबासाहब आंबेडकर पहली बार जवाहरलाल नेहरू से मिले थे, तथा 22 जुलाई 1940 को वे बंबई में सुभाष चंद्र बोस से मिले थे। 1 साल के भीतर में बाबासाहेब देश के दो दिग्गज नेताओं से मिले थे।

 

शेड्युल्ड कास्ट्स फेडरेशन और ब्रिटिश भारत के श्रम मंत्री (1942 – 1946)

अखिल भारतीय दलित फेडरेशन का चुनाव का घोषणापत्र, 1946

डॉ. आंबेडकर का राजनीतिक सफर – मंत्री : डॉ आंबेडकर ने अपनी राजनीतिक पार्टी को एक राष्ट्रीय चरित्र देने और सभी अनुसूचित जातियों को इस पार्टी के बैनर तले लाने के लिए 1942 में ‘अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ’ यानी ‘शेड्युल्ड कास्ट्स फेडरेशन’ की स्थापना की।

अनुसूचित जाति संघ एक सामाजिक-राजनीतिक संगठन था जिसका मुख्य उद्देश्य दलित-उत्पीड़ित समुदाय के अधिकारों के लिए अभियान चलाना था। 1942 और 1946 के बीच, डॉ आंबेडकर ने भारत की तत्कालीन केंद्र सरकार की रक्षा सलाहकार समिति और वायसराय की कार्यकारी समिति में श्रम मंत्री के रूप में कार्य किया।

डॉ बाबासाहेब आंबेडकर 1942 और 1946 के बीच वायसराय की कार्यकारी परिषद, यानी ब्रिटिश भारत के केंद्रीय मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री थे। उनके पास श्रम खाता, ऊर्जा खाता और सिंचाई खाता था।

श्रम मंत्री, ऊर्जा मंत्री और सिंचाई मंत्री के रूप में बाबासाहेब का कार्य आधुनिक भारत के निर्माण के लिए महत्वपूर्ण रहा है। बाबासाहेब ने श्रम, पानी और बिजली के संबंध में कई उपचारात्मक योजनाएँ लागू कीं। उन्होंने ऊर्जा साक्षरता और जल साक्षरता पर भी लिखा और मार्गदर्शन किया है।

बाबासाहेब ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लिया था। बाबासाहेब का विचार था कि भारत की सत्ता अंग्रेजों के बजाय भारतीयों के हाथों में होनी चाहिए, लेकिन वे नहीं चाहते थे कि अंग्रेजों के जाने के बाद भारत में सरकार की सत्ता चंद रूढ़िवादी हिंदुओं के हाथों में रहे।

उन्हें यकीन था कि केवल रुढीवादी हिंदुओं के सत्ता में रहते अछूतों और औरतों की दयनीय स्थिति में सुधार नहीं होगा। वे सत्ता में समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व चाहते थे, ताकि समाज के सभी वर्गों में सुधार हो, विशेषकर पिछड़े समूहों में।

मुस्लिम लीग के लाहौर प्रस्ताव (1940) में पाकिस्तान की मांग के बाद, डॉ आंबेडकर ने ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ नामक 400 पृष्ठों की एक पुस्तक लिखी, जिसमें उन्होंने “पाकिस्तान” की अवधारणा का विश्लेषण किया। उन्होंने मुसलमानों के लिए एक अलग पाकिस्तान की मुस्लिम लीग की मांग की आलोचना की और साथ तर्क दिया कि हिंदुओं को मुस्लिमों पाकिस्तान स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि अब पाकिस्तान एक अनिवार्य चीज बन गया है।

 

संविधान सभा के सदस्य (1946 – 1950)

डॉ. आंबेडकर का राजनीतिक सफर – भारतीय संविधान के निर्माता : भारत से अंग्रेजों की वापसी का फैसला किया गया और ब्रिटिश संसद ने एक अधिनियम पारित किया और भारतीयों पर भारत के लिए एक नए संविधान का मसौदा तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी। संविधान सभा में प्रवेश के लिए कई उम्मीदवार चुनाव में खड़े हुए। बाबासाहब ने भी अछूतों के अधिकारों के संरक्षण के लिए संविधान सभा ने जाने का प्रयास किया।

लेकिन डॉ बाबासाहेब आंबेडकर का राजनीतिक दल ‘अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ’ भारतीय संविधान सभा के 1946 के चुनावों में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाया। बाद में, डॉ आंबेडकर को बंगाल प्रांत (वर्तमान बांग्लादेश) में एक निर्वाचन क्षेत्र से संविधान सभा के लिए चुना गया, जहां उनकी मदद जोगेंद्रनाथ मंडल ने की थी।

बाबासाहेब 1946 में संविधान सभा के सदस्य बने। 30 अगस्त 1947 को संविधान सभा ने 7 सदस्यीय ड्राफ्टिंग कमेटी का गठन किया, जिसमें डॉ. आंंबेडकर भी सदस्य थे।अगले दिन 31 अगस्त 1947 में, बाबासाहेब को संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया था। बाबासाहब द्वारा बनाया गया भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ।

डॉ आंबेडकर को भारत के संविधान के निर्माण में उनके प्रमुख योगदान के कारण “भारतीय संविधान के निर्माता” के रूप में जाना जाता है। आजादी के बाद डॉ. आंंबेडकर को नेहरू मंत्रिमंडल में भारत के कानून और न्याय मंत्री के रूप में नियुक्त किया गया था। हालांकि, उन्होंने संसद में प्रस्तुत हिंदू कोड बिल के विरोध के कारण नेहरू के मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया।

 

स्वतंत्र भारत के कानून और न्याय मंत्री (1947 – 1951)

सितंबर 1947 में बाबासाहेब आंबेडकर ने स्वतंत्र भारत के कानून मंत्री के रूप में शपथ ली। वी.एन. गाडगिल उनके बगल में बैठे हैं और सर्वपल्ली राधाकृष्णन एकदम दाहिनी ओर है।
मई 1950 को राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद डॉ. आंबेडकर को भारत गणराज्य के पहले कानून और न्याय मंत्री के रूप में शपथ दिलाते हुए, और सामने प्रधानमंत्री नेहरू बैठे हुए हैं।
31 जनवरी 1950 को राष्ट्रपति के साथ गणतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल की तस्वीर। कैबिनेट में अपने सहयोगियों के साथ कानून मंत्री डॉ. डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर (बाएं से पहले बैठे), केंद्र में राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद, प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू उनके दाईं ओर और अन्य मंत्री

डॉ. आंबेडकर का राजनीतिक सफर – भारत के कानून मंत्री : 3 अगस्त 1947 को, ब्रिटिश संसद द्वारा 15 जुलाई 1947 को भारतीय स्वतंत्रता प्रस्ताव पारित करने के बाद भारत के मंत्रिमंडल में मंत्रियों के नामों की घोषणा की गई। इसमें डॉ. आंंबेडकर को कानून और न्याय मंत्री के रूप में नियुक्त किया गया था।

इसके बाद डॉ आंबेडकर संविधान समिति के अध्यक्ष और कानून और न्याय मंत्री की दोहरी जिम्मेदारी निभा रहे थे। बाबासाहेब ने 15 अगस्त को देश के स्वतंत्र होने के बाद सितंबर 1947 में प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में स्वतंत्र भारत के पहले कानून मंत्री के रूप में शपथ ली थी।

बार एसोसिएशन ऑफ बॉम्बे ने उन्हें 6 अगस्त, 1947 को स्वतंत्र भारत की पहली कैबिनेट में मंत्री बनने के उपलक्ष में सम्मानित किया। वे सितंबर 1947 से अक्टूबर 1951 तक इस पद पर रहे।

डॉ आंबेडकर ने 27 सितंबर, 1951 को प्रधान मंत्री नेहरू को मंत्री के रूप में अपना इस्तीफा भेजा। नेहरू ने उसी दिन इसे स्वीकार कर लिया, लेकिन 1 अक्टूबर 1951 को, आंंबेडकर ने नेहरू को पत्र लिखकर अनुरोध किया कि 6 अक्टूबर 1951 को लोकसभा में अपने इस्तीफे के निवेदन देने तक इस्तीफा स्थगित कर दिया जाए। 4 अक्टूबर, 1951 को नेहरू ने डॉ आंंबेडकर को सूचित किया कि उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया गया है।

6 अक्टूबर, 1951 को सुबह 10 बजे से 11 बजे के बीच, डॉ आंंबेडकर को लोकसभा में अपना त्यागपत्र निवेदन पढ़ना था। लेकिन लोकसभा के डिप्टी स्पीकर अनंतयनम अयंगर ने इस बयान को शाम 6 बजे पढ़ने का आदेश दिया।

डॉ आंबेडकर को समय में यह बदलाव अनुचित लगा और वे गुस्से में लोकसभा से बाहर चले गए। लोकसभा के बाहर उन्होंने मिडिया/प्रेस के प्रतिनिधियों को इस्तीफे का लिखित बयान दिया। उस बयान में डॉ आंबेडकर ने इस्तीफे के 5 मुख्य कारण बताए थे।

 

राज्य सभा के सदस्य (1952 – 1956)

डॉ. आंबेडकर का राजनीतिक सफर – राज्यसभा सांसद : कानून मंत्री के पद से इस्तीफा देने के बाद बाबासाहेब अंबेडकर लोकसभा चुनाव में खड़े हुए। उन्होंने बॉम्बे नॉर्थ से 1952 का पहला भारतीय लोकसभा चुनाव लड़ा। लेकिन वह अपने पूर्व सहयोगी और कांग्रेस उम्मीदवार नारायण सदोबा काजरोलकर से हार गए।

फिर 1952 में डॉ आंबेडकर राज्यसभा के सदस्य बने। 1954 में, उन्होंने फिर से भंडारा से उपचुनाव में लोकसभा में प्रवेश करने का प्रयास किया, लेकिन वे तीसरे स्थान पर रहे। इसमें भी कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार की जीत हुई। 1957 में दूसरे आम लोकसभा चुनाव होने थे, लेकिन इससे पहले उनका निधन हो गया था।

डॉ बाबासाहेब आंबेडकर ने दो कार्यकाल के लिए भारतीय संसद के ऊपरी सदन राज्यसभा में बॉम्बे राज्य का प्रतिनिधित्व किया। राज्यसभा सदस्य के रूप में उनका पहला कार्यकाल 3 अप्रैल 1952 से 2 अप्रैल 1956 तक था और उनका दूसरा कार्यकाल 3 अप्रैल 1956 से 2 अप्रैल 1962 तक था। किंतु अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान 6 दिसंबर, 1956 को उनका निधन हो गया।

 

रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया

1956 में, डॉ बाबासाहेब आंबेडकर ने “अनुसूचित जाति संघ” को भंग करने और ‘रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया’ के गठन की घोषणा की। लेकिन इस पार्टी के गठन से पहले उनकी मृत्यु हो गई, और इसके बाद उनके अनुयायियों और कार्यकर्ताओं ने यह पार्टी बनाने की योजना बनाई।

रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया की स्थापना के लिए 1 अक्टूबर 1957 को नागपुर में प्रेसीडियम की बैठक हुई। इस बैठक में एन. शिवराज, यशवंत आंंबेडकर, पी.टी. बोराले, ए.जी. पवार, दत्ता कट्टी, दा.ता. रुपवते मौजूद थे। इसके तीसरे दिन 3 अक्टूबर 1957 को ‘रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया’ का गठन हुआ। एन. शिवराज को पार्टी अध्यक्ष चुना गया, और वह अपने निधन तक इस पार्टी के अध्यक्ष बने रहे। 1957 में दूसरी लोकसभा में इस दल के 9 सदस्य निर्वाचित हुए। यह बाबासाहेब की पार्टी की सर्वोच्च उपलब्धि है।

 

बाबासाहब के वंशजों की राजनीति 

डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के वंशजों को उनकी राजनीतिक विरासत मिली है। लेकिन बाबासाहेब की तुलना में वंशजों को बहुत कम राजनीतिक सफलता मिली। बाबासाहेब के इकलौते बेटे यशवंत आंबेडकर महाराष्ट्र विधान परिषद के सदस्य थे। उसके बाद, बाबासाहेब के पोते और यशवंत के बेटे प्रकाश आंबेडकर तीन बार सांसद रहे हैं। वह दो बार लोकसभा और एक बार राज्यसभा के लिए चुने गए। इन तीनों के बाद आंबेडकर परिवार का कोई भी व्यक्ति विधायक या सांसद नहीं बन सका।

बाबासाहब के निधन के बाद, उनकी पत्नी सविता आंबेडकर को पीएम जवाहरलाल नेहरू, पीएम इंदिरा गांधी और राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने राज्यसभा में ले जाने का आग्रह किया। लेकिन कांग्रेस पार्टी के समर्थन से राज्यसभा की सदस्य बनना उन्हें पति के सिद्धांतों के साथ विश्वासघात लगा, इसलिए उन्होंने विनम्रतापूर्वक तीनों बार प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया।

बाबासाहेब के छोटे पोते आनंदराज आंंबेडकर और चचेरे परपोते राजरत्न आंंबेडकर ने क्रमशः महाराष्ट्र विधानसभा और लोकसभा चुनाव लड़े थे, लेकिन वे दोनों जीतने में असफल रहे। बाबासाहेब के परपोते और प्रकाश आंबेडकर के बेटे सुजात आंबेडकर भी राजनीति में ऍक्टिव्ह है और वह अपने पिता की राजनीतिक पार्टी में काम करते हैं, हालांकि उन्हें पार्टी में कोई अवधा नहीं दिया गया है और ना ही उन्होंने कभी कोई चुनाव लड़ा है।

 



यह भी पढ़े

 

‘धम्म भारत’ पर मराठी, हिंदी और अंग्रेजी में लेख लिखे जाते हैं :


दोस्तों, धम्म भारत के इसी तरह के नए लेखों की सूचना पाने के लिए स्क्रीन की नीचे दाईं ओर लाल घंटी के आइकन पर क्लिक करें।

(धम्म भारत के सभी अपडेट पाने के लिए आप हमें फेसबुक पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं।)

2 thoughts on “डॉ. बाबासाहब आंबेडकर का राजनीतिक सफर – Dr Ambedkar’s Political Journey

  1. सारगर्भित और ज्ञानवर्दक जानकारी भारत के महान व्यक्तित्व डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर के सम्बंध में, साथ ही उनके आर्थिक क्षेत्र में योगदान के सम्बंध में भी लेख प्रकाशित करे।
    आपकी सक्रिय भूमिका के लिये शुभकामनाए।

    1. धन्यवाद, पुष्पा जी। मैं डॉ बाबासाहेब आंबेडकर के आर्थिक क्षेत्र के योगदान के सम्बंध में भी लेख बनाऊंगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *